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| Jun 30, 2013, 12:44PM IST
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गुजरात का सौराष्ट्र केसर आमों के लिए दुनिया भर में विख्यात है। अगर
आप सौराष्ट्र के तलाणा आएं तो आपको केसर आमों के अलावा एक और हैरत में
डालने लोगों की भीड़ दिखाई देगी। आमतौर पर नेशनल जियोग्राफी या डिस्कवरी
जैसे चैनलों पर दिखाई देने वाले हबसी लोग आप यहां प्रत्यक्ष रूप से देख
सकते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में हबसी के रूप में पहचाने जाने वाले नीग्रो प्रजाति
के लोग गुजरात में लंबे समय से रहते आ रहे हैं। अफ्रीका के नीग्रों की तरह
रहने वाले यह प्रजाति शुद्ध रूप से सिर्फ गुजराती भाषा ही जानती है।
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गुजरात में ये लोग ‘सीदी’ कहे जाते हैं। तलाणा के आसपास के गांवों में
ये लोग बसे हुए हैं। लेकिन ‘गिर’ फारेस्ट के बीचों-बीच ‘जंबूर’ नामक एक
गांव है। इस गांव को गुजरात का अफ्रीका कहा जाता है। इस गांव में आने के
बाद आपको बिल्कुल ऐसा ही लगेगा, मानो आप नीग्रो के गांव आ गए हैं।
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लगभग दो हजार साल पहले ‘सीदी’ भारत आए थे। ऐसा भी कहा जाता है कि इन्हें
पानी के जहाजों द्वारा अफ्रीका व अन्य जगहों से लाया गया था। ऐसा भी कहा
जाता है कि अरबी और मुगल शासक इन्हें गुलाम बनाकर रखते थे। इसके अलावा इन
लोगों का व्यापार भी होता था। ह्युमन ट्रैफिकिंग का यह व्यवसाय अमेरिका से
लेकर युरोप तक फैला हुआ था। जब मुगलों ने भारत की ओर रुख किया तो अपने साथ
इन्हें भी यहां ले आए। गुजरात के इतिहास पर नजर करें तो यह भी पता चलता है
कि जूनागढ़ के नवाब ने काफी संख्या में इन्हें खरीदा था। नवाबों व राजाओं
के शासन के अंत के बाद ये लोग यहीं बस गए।
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सौराष्ट्र में बसे सीदियों का कालक्रम अब पूर्ण रूप से गुजराती और
भारतीय बन चुका है। लेकिन कुदरत द्वारा प्रदत्त इनकी शारीरिक बनावट अन्य
भारतियों से इन्हें अलग करती है और ये लोग अफ्रीका के नीग्रो जैसे नजर आते
हैं। सीदी गुजरात में आदिवासियों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। इनका मुख्य
पेशा खेती-किसानी, लकड़ियां बेचना व गाय-भैंसों का पालन है।
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‘धमाल’ नृत्य
सीदियों की एक और पहचान इनके ‘धमाल’ नामक नृत्य से भी है। यह नृत्य
बिल्कुल अफ्रीकन नीग्रो की तरह होता है। गुजरात की सीदी मुख्यत: मुस्लिम
धर्म को मानते हैं। वे यहां पिछले आठ सौ सालों से संत नागरची बाबा की
आराधना करते आ रहे हैं।
सीदी हर रोज शाम को ड्रम बजाते हुए जांबूर गांव के बीचों-बीच स्थित मस्जिद में बंदगी करते हैं।
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इनके बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि प्राचीन समय में राजा इन्हें
अपने अंगरक्षक के रूप में रखा करते थे। यह प्रजाति शारीरिक रूप से बहुत
मजबूत होती है, इसलिए इनकी नियुक्ति राजाओं के अंगरक्षकों के अलावा सेना
में भी की जाती थी।
सन् 1572 में जब जलालुद्दीन अकबर गुजरात आया तब वह अपने साथ लगभग 700
हबसी घुड़सवारों को लाया था। इसके अलावा पाकिस्तान के सिंध प्रांत में भी
रहने वाले हबसी लोगों को लड़ाका माना जाता है।
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गुजरात के सिहों और इन लोगों का पुराना रिश्ता है।
एशियाटिक लायंस के लिए मशहूर गुजरात का ‘गिर’ फारेस्ट इनकी मुख्य
शरणस्थली है। आपको बताते चलें कि इस फॉरेस्ट में लगभग 410 शेर हैं और ये
लोग इन शेरों के बीच में ही रहते हैं। आप अगर गिर फॉरेस्ट की सफारी पर हों
तो जंगल के बीचों-बीच इनका गांव देख सकते हैं। यहां के लोगों व बच्चों के
बीच आप आसानी से कई शेरों को विचरण करते हुए देख सकते हैं।
http://www.bhaskar.com/article/GUJ-a-africa-in-gujarat-also-gir-forest-jambur-village-seedi-4305934-PHO.html
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